hindisamay head


अ+ अ-

कविता

मेरी आवाज

रविकांत


अरे, ओह!
देखो झटक दी मैंने अपने समय की चादर
कि जिस पर सो रहा था

फेंक कर कपड़े कूदा हूँ पानी के भीतर -
पता नहीं ये झील है या तालाब जाड़े का;
नदी है या नहर कोहरे से ढँकी हुई
तैरता हूँ तो रह-रह के धकियाता है पानी

खड़ा हूँ धूप में -
जैसे जीवन झर रहा हो मुझ पर
अपने ताप से मुझे सेंकता हुआ

ओस पर चल रहा हूँ -
जैसे जिंदगी के अनुभव सब
मेरे तलवों से चिपक कर
कुछ कह रहे हो

मैंने पी है ईसपगोल की भूसी!
ताकि ठीक हो मेरे समय का हाजमा
कितना तो अनाप-शनाप खिला रखा है उसको

बिना बकवास किए ही
दोस्तों में सिर उठा रहा हूँ
(कि ये बात है बड़ी)

देखो झटक दी मैंने दिमाग की सब धूल

हवा ताजी मुझे सहला रही है
कि मेरे दिमाग के जंगलों और वादियों में
पसरा सन्नाटा, फिर टूटने लगा है...
फिर मेरी आवाज लौट कर आने लगी है

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में रविकांत की रचनाएँ